मीरा रचना – संयचन
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चयन एवं संपादक : माधव हाडा
Description
मीरां की कविता ठहरी हुई और दस्तावेजी कविता नहीं है। यह लोक में निरंतर बनती बिगड़ती हुई जीवंत कविता है। लोक के साथ उठने-बैठने के कारण यह इतनी समावेशी, लचीली और उदार है कि सदियों से लोक इसे अपना मानकर इसमें अपनी भावनाओं और कामनाओं की जोड़-बाकी कर रहा है। यह इस तरह की है कि लोक की स्मृति से हस्तलिखित होती है और फिर हस्तलिखित से एक लोक की स्मृति में जा चढ़ती है। लोक की स्मृति में मीरां के नाम से प्रसिद्ध और मीरां की छापवाले हजारों पद मिलते हैं और ये आज के हिसाब से एकाधिक भाषाओं में भी हैं।