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राजा राधिकारमण रचना - संयचन

340.00

राजा राधिकारमण रचना – संयचन

340.00

लेखक : राजा राधिकारमण

चयन एवं संपादन : मंगलमूर्ती

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Description

यह ‘संचयन’ उसी कालावधि का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करता है, जैसा विशद चित्रांकन प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण समाज के शोषण और पिछड़ेपन का मिलता है, उसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू एक सामंतवादी राजा, किंतु प्रगतिशील लेखक के कथा-साहित्य में मिलता है गरीबी, पिछड़ापन, नारी-शोषण, धार्मिक अनाचार के कीचड़ में लिथड़ता हुआ, क्रूर, लोभी, भ्रष्टाचारी अंग्रेजी शासकों द्वारा शोषित भारतीय समाज, जिसमें गाँधी की तरह का मसीहा जागृति लाने का प्रयास कर रहा है, और उसी के जुलूस के लोग फिर उसी के सपनों को स्वार्थ और भ्रष्टाचार के औज़ार से तार-तार कर रहे हैं। साहित्य की यही सार्थकता है – वह समाज को ही आईना दिखाता है, पर साहित्य समाज का दर्पण नहीं होता, वह समाज के लिए एक दर्पण होता है, जिसमें समाज की विकृतियाँ उसके सम्मुख प्रतिबिंबित होती हैं। राजा साहब के साहित्य में भी, प्रेमचंद के साहित्य की ही तरह, उसी समाज की, उसी समय की, एक और वैसी ही अधोमुखी छवि दिखाई देती है, जिसे एक बार फिर आज के पाठक को पीछे मुड़ कर देखना चाहिए और यही सार्थकता है इस संचयन की।

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